Hi, I have a question and I hope anyone could answer it:
UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 3 सुभाषितानि सूक्तिपरक वाक्य की व्याख्या
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Answer:
सूक्तिपरक वाक्य की व्याख्या
(1) वरं दारिद्रयमन्यायप्रभवाद् विभवादिह ।।
सन्दर्य
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘सुभाषितानि । शीर्षक पाठ से अवतरित है।
[संकेत-इस शीर्षक के अन्तर्गत आयी हुई समस्त सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। |
प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में बताया गया है कि व्यक्ति को अन्याय से धन-संचय नहीं करना चाहिए।
अर्थ-
अन्याय से अर्जितं धन-सम्पदा से तो निर्धन होना श्रेष्ठ है।।
व्याख्या
श्रम से कमाया गया धन ही व्यक्ति के काम आता है और उसी से व्यक्ति के मन को सन्तोष और शान्ति मिलती है। अन्याय से अर्जित धन सदैव व्यक्ति को परेशान रखता है; क्योंकि व्यक्ति को सदैव ही यह भय बना रहता है कि कहीं उसके द्वारा अनैतिक साधनों से संग्रह करके जो धन छिपाया गया है, उसका भण्डाफोड़ न हो जाये। भला ऐसे धन का क्या लाभ, जो व्यक्ति से उसके दिन का.चैन और रातों की नींद छीन ले। मन की शान्ति संसार का सबसे बड़ा धन है। यदि निर्धनता में भी मन की शान्ति बनी रहती है तो यह निर्धनता अन्यायपूर्वक धनोपार्जन करके धनवान् होने से अधिक श्रेष्ठ है।
(2) कृशताऽभिमता देहे पीनता न तु शोफतः ।
प्रसंग
व्यक्ति के स्वस्थ होने के महत्त्व को प्रस्तुत सूक्ति में बताया गया है।
अर्थ
सूजन के मोटापे से शरीर की दुर्बलता ही अच्छी है। |
व्याख्या
किसी रोगवश सूजन के कारण शरीर में आयी स्थूलता किसी काम की नहीं होती; क्योंकि यह स्थूलता व्यक्ति को केवल कष्ट ही दे सकती है। वह व्यक्ति के लिए प्राणघातक हो सकती है अथवा व्यक्ति को अपंग भी बना सकती है। ऐसी स्थूलता से भला क्या लाभ, जो व्यक्ति के प्राण ले ले अथवा उसे अपंग बनाकर नारकीय जीवन जीने को विवश कर दे। उसे स्थूलता के कष्ट से तो शरीर की दुर्बलता ही अच्छी है। कम-से-कम यह दुर्बलता व्यक्ति को कोई कष्ट तो नहीं देती। तात्पर्य यह है कि दुर्बल होते हुए भी स्वस्थ शरीर वाला मनुष्य अधिक उत्तम होता है।
(3) अव्यवस्थितचित्तानां प्रसादोऽपि भयङ्करः।
प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में अस्थिर मन वाले लोगों से दूर रहने का परामर्श दिया गया है।
अर्थ
अस्थिर मन वालों की कृपा भी भयंकर होती है।
व्याख्या
जो लोग पलभर में रूठ जाते हैं और पलभर में मान जाते हैं, जो छोटी-छोटी बातों पर रूठते-मानते रहते हैं, ऐसे अस्थिर मन वाले लोगों की कृपा भी भयंकर होती है; क्योंकि ऐसे लोगों का कुछ पता नहीं होता कि वे कब क्या कर बैठेगे ? ऐसे लोग भावुकता में बहकर कभी-कभी व्यक्ति का ऐसा अनिष्ट कर डालते हैं कि उसका उस अनिष्ट से उबर पाना मुश्किल ही नहीं असम्भव हो। जाता है। उदाहरणस्वरूप ऐसे किसी व्यक्ति के साथ मिलकर आप व्यापार आरम्भ करते हैं और अपनी कुल जमापूंजी उसमें लगा देते हैं। व्यापार अभी ठीक से आरम्भ भी नहीं हुआ होता कि वह किसी बात से नाराज होकर अपनी पूँजी के साथ व्यापार से अलग हो जाता है। ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति के कारण आप अपना सब कुछ लुटा बैठेगे। इसलिए ऐसे लोगों से दूर ही रहना चाहिए।
(4) सम्पूर्णकुम्भो न करोति शब्दमर्दो घटो घोषमुपैति नूनम् ।
प्रसंग
प्रस्तुत संक्ति में अज्ञानी व्यक्ति के विषय में बताया गया है।
अर्थ
पूरा भरा हुआ घड़ा शब्द नहीं करता है। आधा घड़ा निश्चय ही शब्द करता है।
व्याख्या
प्रायः देखा जाता है कि जो घड़ा पूरा भरा होता है, दूसरी जगह ले जाते समय वह शब्द नहीं करता। इसके विपरीत जो घड़ा आधा भरा होता है, वह दूसरी जगह ले जाते समय अवश्य शब्द करता है; क्योंकि खाली जगह होने के कारण वह छलकता है और छलकने का शब्द अवश्य होता है। उसी प्रकार जो विद्वान् और कुलीन होता है, वह अहंकार नहीं करता, वह बढ़-चढ़कर डींग नहीं मारता। इसके विपरीत जो अल्पज्ञ और गुणों से हीन होते हैं, वे बहुत डींगे मारते हैं। विद्वान् और कुलीन पूरे भरे घड़े के समान गम्भीर होते हैं; जब कि ओछे व्यक्ति आधे भरे हुए घड़े के समान छलके बिना नहीं रह सकते।
विशेष—इसी सन्दर्भ में निम्नलिखित उक्तियाँ भी कही गयी हैं
(1) क्षुद्र नदी भरि चली उतराई।
(2) अल्प विद्या भयंकरी
(3) प्यादे ते फरजी भयो टेढो-टेढो जाय।
(4) अधजल गगरी छलकत जाय।
(5) थोथा चना बाजे घना।